शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

म..हं..गा..ई

टूटे हुए सपनो को,
बिखराने-
कि कही वो जुड़ न जायें,
वैश्वीकरण के संग,
करके सगाई,
वो आई,
म..हं..गा..ई ।
भुख्हड़ है,
कितना भी खिलाओ,
क्षुधा शांत नही होती उसकी,
न ही फटता है पेट उसका,
दूसरों के पेट पर,
है लात मारने आई,
म..हं..गा..ई।
सूनी आँखे,
सूखती टहनियां,
बाजार से आते छोटे थैले,
चुपके से बजती शहनाई,
संदेश है देती,
देखो वो आई,
म..हं..गा..ई ।
है ना, इसकी एक अच्छाई-
आने वाले ,
लोकतंत्र के महापर्व,
चुनावों में,
मुद्दे के रूप में,
चारों तरफ़ होगी छाई,
म..हं..गा..ई ।



2 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

शीला दीक्षित ने कहा,
कहाँ है मंहगाई?
मुझे ओ आज तक मिलने नहीं आई,
न ही किसी नागरिक ने फोन किया,
कि शहर में मंहगाई है आई,
चुनाव आए तो बहकाने लगे जनता को,
इन लोगों को शर्म भी नहीं आई.

बेनामी ने कहा…

हा हा हा।

क्या मजाक करते हो प्रमोद भाई
पता नहीं तुम्हें इस देश
के अंदर बसते है दो देश,
हो सकता है तुम्हारे भारत में हो
ये गरीबी-भुखमरी-महंगाई,
पर हमारे इंडिया में सब दुर है खुशहाली,
हम चंद करोड लोगो की खुशी
क्यो कर तुम भारतीयो को रास न आयी,
मुक्त व्यापार का है वरदान जो तुम्हारा
गरीब-फटीचर भारत है गुलाम।
अमा तुम भी खालिस टेढे हो इंसान
इतिहास के अंत को दो दशक होने आये,
शोषण के इस महान युग में
शोषक की मुक्ति पर हमला बोल
काहे फिर रहे हो अपनी शामत बुलवाये।
पता नहीं क्या आजकल महंगाई का
नाम लेना देशद्रोह है,
मनहूस हिन्दूस्तान की दरिद्रता का
वर्णत करना शाईनिंग इंडिया में कुफ्र है।

प्रमोद जी शानदार रचनाये ब्लाग पर पोस्ट करने के लिये बहुत बहुत बधाई। टिप्पणी दि है तो ये जरूर बताईगा कि एक बेचारे अल्पसंख्यक इंडियन वर्ग की कीडे मकोडे की माफिक देशभर में फैले बहुसंख्यक भारतीय वर्ग को लगाई लताड कैसी लगी।