बुधवार, 30 जुलाई 2008

राजनीति

राजनीति सच में,
राज करने की नीति है,
चाँदी के जूते मारना,
राजनीति की रीति है।
बाजार खुला है,
माल मिलता है अंधेरे में,
धब्बे मिट जाते है पर,
हर रोज सबेरे में।
यहाँ आत्माएं,
शरीर रूपी दल,
पल भर में बदलते हैं,
आज 'अ' के साथ,
कल 'ब' के साथ चलते हैं।
चुनावों में ही वे,
वायदों की टोकरी लिए,
फेरे लगाते हैं,
चुनावों के बाद,
उनमे से कुछ ही,
खाली टोकरी के साथ,
नजर आते हैं।
जनता बेचारी,
सब जानकर भी अनजान है,
"कर्म करो फल की ......."
यही तो आख़िर गीता का ज्ञान है।

3 टिप्‍पणियां:

शोभा ने कहा…

धब्बे मिट जाते है पर,
हर रोज सबेरे में।
यहाँ आत्माएं,
शरीर रूपी दल,
पल भर में बदलते हैं,
आज 'अ' के साथ,
कल 'ब' के साथ चलते हैं।
बहुत ही सुन्दर लिखा है। स्वागत है आपका।

संगीता पुरी ने कहा…

हिन्दी चिट्ठा.जगत में आपका स्वागत है।
जनता बेचारी,
सब जानकर भी अनजान है,
"कर्म करो फल की ......."
यही तो आख़िर गीता का ज्ञान है।
बहुत अच्छा।

Unknown ने कहा…

राजनीति में चांदी के जूते नहीं मारे जाते सबको,
अधिकाँश को तो मारे जाते हैं प्रजातंत्र के जूते,
वह भी भिगोकर पानी में,
और उनकी आवाज भी नहीं होती,
मारने वाला राजनेता,
मार खाने वाला आम आदमी,
वह जूते मारें और तुम खाए जाओ,
यह गीता का ज्ञान नहीं है,
गीता कहती है संघर्ष करो,
अन्याय के ख़िलाफ़, जुल्म के ख़िलाफ़,
एहसानफ़रामोशी, विश्वासघात के ख़िलाफ़,
कर्म करो, वह फल देगा, उसका वादा है यह,
पर तुम कर्म तो करो.