बुधवार, 17 सितंबर 2008

बेशर्म आतंकवाद

बेआवाज टूट रहा,
चुपके से-
पर क्यों टूट रहा है?
जीवन डोर से,
निरंतर-
रिश्ता, टूट रहा है।
हार कर भी,
नही छोड़ता रार,
गिरता है,
फ़िर उठता है,
पर एक बार फ़िर-
बदहवास सा-
गिरने के लिए।
निशान छोड़े जा रहा-
पर नही चलने को,
तैयार कोई खड़ा-
ख़ुद ही फ़िर,
है लौटता-
तेज क़दमों से,
निशान मिटाने को।
अपने आप ही,
है फ़िर करता नाद,
हारकर भी जीतने की,
घोषणा करता जाता-
बेशर्म सा यह,
नृशंश आतंकवाद।

सोमवार, 1 सितंबर 2008

काम की तलाश में हंसोड़ भाई

आज सुबह जब मैं,
सड़क पर गाड़ियों के,
धुएँ को पीते हुए,
धीरे-धीरे टहल रहा था,
हमारे हंसोड़ भाई,
अचानक आते दिखे;
मुझे देख कर,
उन्होंने अपने तेज-
क़दमों को ब्रेक लगाया,
सीधे मेरे पास आकर रुके।
मैंने नमस्ते किया,
उन्होंने जबाब दिया,
साथ ही बढे मेरा,
हाथ पकड़ कर,
सड़क के किनारे,
अतिक्रमण कर निर्मित-
चाय की दुकान पर,
खड़े हो आर्डर दिया।
मैंने पूछा-हाल बताएँ,
कैसा चल रहा है-
काम बताएँ,
हंसोड़ भाई ने कहा-
देखिये अब हम,
क्या विशेष बताएँ,
एक ऐसे काम के ,
हैं चक्कर में पड़े,
जिसमे कुछ विशेष कमायें।
आजकल छोटी पुलिया-
बनाने में फायदा है,
काम कम मुनाफा ज्यादा,
यही तो अपना-
काम करने का कायदा है ,
सरकार ने भी तो अब,
हर हाथ को काम का,
किया वायदा है।
सडको पर जहाँ-
पानी न हो बहता,
पुलिया बनवाएं,
उसके दोनों ओर फ़िर,
गड्ढा करवाएं।
इधर का पानी उधर,
उधर का इधर बहेगा,
अपनी जेब में भी,
माल-पानी भरा रहेगा।
यह काम लेना भी बहुत,
आसान है यदि-
सरकारी कार्यालयों में,
आपकी पहचान है।
मैंने खुशामद कर,
हंसोड़ भाई से कहा-
मुझे भी एकाध,
पुलिया दिला दें,
पानी पार हो न हो,
मेरा भी बेडा-
कृपा कर पार लगा दें।