बुधवार, 17 सितंबर 2008

बेशर्म आतंकवाद

बेआवाज टूट रहा,
चुपके से-
पर क्यों टूट रहा है?
जीवन डोर से,
निरंतर-
रिश्ता, टूट रहा है।
हार कर भी,
नही छोड़ता रार,
गिरता है,
फ़िर उठता है,
पर एक बार फ़िर-
बदहवास सा-
गिरने के लिए।
निशान छोड़े जा रहा-
पर नही चलने को,
तैयार कोई खड़ा-
ख़ुद ही फ़िर,
है लौटता-
तेज क़दमों से,
निशान मिटाने को।
अपने आप ही,
है फ़िर करता नाद,
हारकर भी जीतने की,
घोषणा करता जाता-
बेशर्म सा यह,
नृशंश आतंकवाद।

5 टिप्‍पणियां:

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

badiya kavita
Nirantarata banae rakhen...

Sumit Pratap Singh ने कहा…

wah...

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

मजेदार सुंदर कविता बहुत बहुत शुक्रिया आपके मेरे ब्लॉग पर पधारने का धन्यबाद कृपया पुन: पधारे मेरी नई रचना मुंबई उनके बाप की पढने हेतु सादर आमंत्रण

BrijmohanShrivastava ने कहा…

जब इतने अच्छे व्यंग्यकार को रचनाओं में हास्य व्यंग्य कि पुट देते हो तो फिर लिखते क्यों नहीं /१७ तारीख के बाद ये दूसरी १७ आने को है /लिखना हमारा धर्म है, कर्म है, व्यवसाय नहीं / अब कौन पढता है कौन लाभान्वित होता है यह सोचोगे तो कभी न लिख पाओगे /आज से ५ हजार साल पूर्व व्यास जी कहते थे मेरी कोई सुनता ही नहीं /साहित्य स्रजन एक सहना भी है और स्वांत सुखाय भी इसलिए अनुरोध करूंगा कि लिखो /

BrijmohanShrivastava ने कहा…

दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं /दीवाली आपको मंगलमय हो /सुख समृद्धि की बृद्धि हो /आपके साहित्य सृजन को देश -विदेश के साहित्यकारों द्वारा सराहा जावे /आप साहित्य सृजन की तपश्चर्या कर सरस्वत्याराधन करते रहें /आपकी रचनाएं जन मानस के अन्तकरण को झंकृत करती रहे और उनके अंतर्मन में स्थान बनाती रहें /आपकी काव्य संरचना बहुजन हिताय ,बहुजन सुखाय हो ,लोक कल्याण व राष्ट्रहित में हो यही प्रार्थना में ईश्वर से करता हूँ ""पढने लायक कुछ लिख जाओ या लिखने लायक कुछ कर जाओ ""